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जो क़ौमें इतिहास से सीखती नहीं, वो उसी में दफ़्न हो जाती हैं…!

मशहूर कहावत है कि ‘जो क़ौमें इतिहास से सीखती नहीं, वो उसी में दफ़्न हो जाती हैं’ यानी ‘Those who do not learn history are doomed to repeat it’. एक के बाद एक, साहित्यकारों के बीच ये कैसी होड़ लगी है कि वो शासन-व्यवस्था के प्रति अपना आक्रोश जताते हुए उस सम्मान को लौटाने का एलान करने लगे जिसने उन्हें अहम पहचान दी थी. स्वाभाविक है कि जिन सत्तासीन लोगों के प्रति गुस्सा दिखाया जा रहा है वो शायद ही इससे कोई नसीहत लें. नसीहत ही लेते की फ़ितरत होती तो ऐसी नौबत ही क्यों आती? उल्टा दुष्प्रचार तो ये फ़ैलाया जा रहा है कि शीर्ष साहित्यकारों की जमात भी सियासी मोहरा बन गयी है. क्या हम ये भूल चुके हैं कि गुरुदेव रवीन्द्र नाथ टैगोर ने भी नोबेल सम्मान लौटाया था!


ज़रा गुरुदेव के उस दौर को याद करते चलें. टैगोर को बांग्ला में रचित काव्य रचना गीतांजलि के लिए 1913 में साहित्य का नोबेल मिला. ये सम्मान पाने वाले वो पहले ग़ैर-यूरोपीय थे. इसके बाद ब्रिटिश सरकार ने 1915 में उन्हें Knighthood नामक सर्वोच्च नागरिक सम्मान दिया. ये आज के भारत रत्न जैसा था. लेकिन 1919 में जलियाँवाला बाग़ नरसंहार से क्षुब्ध होकर गुरुदेव ने दोनों सम्मान लौटा दिये. ब्रिटिश सम्मान को लौटाकर उन्होंने अँग्रेज़ों की दमनकारी नीति की भर्त्सना की, तो स्विस नोबेल लौटाकर उन्होंने इतनी तीखी प्रतिक्रिया ज़ाहिर की, जिससे सारी दुनिया ने भारतवासियों के दर्द और गुस्से के बारे में जाना. इतिहास गवाह है कि जलियाँवाला कांड के बाद किस तरह भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन ने रफ़्तार पकड़ी और 28वें साल में अँग्रेज़ों को भारत छोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ा. साफ़ है कि यदि आज सत्तासीन नेता इस अहंकार में जी रहे हैं कि मुट्ठीभर साहित्यकारों की ‘बनावटी’ नाराज़गी से उनकी सेहत पर कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता. तो वो अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार रहे हैं. इसीलिए, कहा गया है कि ‘जो क़ौमें इतिहास से सीखती नहीं, वो उसी में दफ़्न हो जाती हैं’.

साहित्यकारों की सियासी निष्ठा पर सवाल खड़े किये जा सकते हैं. लेकिन समाज को इन सवालों के उत्तर तो देने ही होंगे कि क्या असहमतियों को सूली पर टाँग दिया जाएगा? दाभोलकर, कलबुर्गी, पनसारे और अख़लाक़ जैसे अलग सोच रखने वालों, अलग ढंग से जीने वालों, खाने-पीने वालों या धार्मिक आस्थाओं वालों को मौत के घाट उतार दिया जाएगा? क्या ‘सबका साथ, सबका विकास’ के ऐसे ही मॉडल के लिए पिछले साल वोटों की बम्पर फ़सल उगी थी? क्या भारत सिर्फ़ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, बीजेपी, विश्व हिन्दू परिषद, बजरंग दल, शिव सेना, सनातन संस्था जैसे संगठनों के समर्थकों की जागीर है? अब ये भी होगा कि इन सवालों को पूछने वालों के ख़िलाफ़ लोग त्रिशूल लेकर निकल पड़ेंगे. यानी, जो हिन्दुस्तान और हिन्दुत्व के बारे में उनकी तरह नहीं सोचते वो देशद्रोही हैं. वो या तो पाकिस्तान जाएँ या उन्हें यहीं मौत की गोद में सुला दिया जाएगा.

बहुत सारे लोगों को लगता है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अख़लाक़ की मौत के आठ दिन बाद जो कुछ कहा वो नाकाफ़ी था. हालाँकि मैंने 6 अक्टूबर को लिखा था, “मोदी जी के बोल देने से, खेद प्रकट करने से, क्या संघ भक्तों का दीनईमान बदल जाएगा? यदि हाँ, तो वो ज़रूर बयान देंगे. आज नहीं तो कल. देर है!, अन्धेर नहीं होगी...!”

मोदी जी ने अन्धेर होने भी नहीं दी. कहा, ‘हिन्दू-मुसलमान तय करें कि उन्हें ग़रीबी से लड़ना है या एक-दूसरे से’. सीधी-सपाट दो टूक. गागर में सागर जैसा. लेकिन मीन-मेख निकालने वालों के तो पेट में दर्द होने लगा कि प्रधानमंत्री ने बोलने में बहुत देर कर दी, निन्दा नहीं की, भर्त्सना नहीं की, दोषियों के ख़िलाफ़ सख़्त कार्रवाई करने का डमरू नहीं बजाया. मानो, जो नेता ऐसा करते हैं उससे कहीं कोई फ़र्क़ पड़ता है. रटा-रटाया राजनीतिक और सांस्कृतिक बयान देने वालों की बातों पर ही कौन सा अमल होता है? इतिहास ही हमें इन बातों को समझने की क़ाबलियत देता है.
चुनाव आते हैं. हो जाते हैं. सरकारें आती हैं. जाती हैं. लेकिन बिहार के चुनाव के बाद देश में वैसी यथास्थिति बहाल नहीं होगी, जैसी तमाम चुनावों के बाद हो जाया करती थी. क्योंकि बिहार का संग्राम सिर्फ़ वहाँ नहीं बल्कि दादरी, मैनपुरी और कानपुर के अलावा महाराष्ट्र और कर्नाटक में भी लड़ा गया है. सोशल और परम्परागत मीडिया को भी इसमें बड़ी भूमिका मिली है. तभी तो विकास उस गाय में तब्दील हो गयी, जिसे भारत का प्रतीक बनाया गया. इस चिन्तन का पुराना इतिहास है, जो भेदभाव, हिंसा और दमन के क़िस्सों से भरा पड़ा है. यही इतिहास का कड़वापन है. इसकी जड़ें वर्ण-व्यवस्था में हैं. जिसमें असमानता जन्मजात होती है. जीवन पर्यन्त रहती है. ये संविधान की उस बुनियादी मान्यता के ख़िलाफ़ है, जो कहता है कि ‘सभी नर-नारी का जन्म समान है और वो समान मौक़ों के हक़दार होंगे’ यानी All men & women are born equal and shall have equality of opportunity.

संविधान निर्माताओं के लिए ऐसी व्यवस्थाएँ करना बेहद चुनौतीपूर्ण था जिससे एक धर्मनिरपेक्ष और उदार लोकतंत्र का जन्म हो सके. समान मताधिकार, शिक्षा, औद्योगिक विकास, शहरीकरण और संचार माध्यमों ने उस परिकल्पना को साकार करने में अहम भूमिका निभायी. ये सब इसीलिए भी हो पाया, क्योंकि इतिहास ने हमें सिखाया था कि चौतरफ़ा उदारता के बग़ैर भारत एक सम्पन्न देश नहीं बन सकता. लेकिन ज़रा देखिए कि जिन लोगों ने संविधान की शपथ ली है वो नफ़रत के कैसे-कैसे बयान देते हैं! इसीलिए प्रधानमंत्री के कम या ज़्यादा बोलने से क्या फ़र्क़ पड़ जाता! क्या उनके मंत्री और नेता उनकी सुनते हैं? जब पार्टी के निर्लज्ज नहीं सुनते तो अमेरिका, जर्मनी, फ्रांस, रूस या संयुक्त राष्ट्र वाले सुनते होंगे? नेपाल तक तो सुन नहीं रहा. पाकिस्तान, चीन क्या ख़ाक सुनेगा? विदेश में टीवी पर गाल बजाकर देश में तालियाँ तो बटोरी जा सकती हैं, लेकिन कूटनीति नहीं हो सकती.

भारतीय समाज का जैसा धार्मिक ध्रुवीकरण आज हो चुका है, वैसा तो शायद 1947 में आज़ादी के वक़्त या 1992 में अयोध्या का विवादित ढाँचा ढहाये जाने के वक़्त भी नहीं था. ऐसा नहीं है कि ध्रुवीकरण की ये आग बिहार चुनाव के बाद थम जाएगी. ये आग ‘अमर जवान ज्योति’ जैसी कभी नहीं बुझने वाली होती है. इसी का नतीजा है कि कोई संयुक्त राष्ट्र को शिकायत करता है तो कोई पाकिस्तानी कलाकारों को दुत्कारता है. एक के दुत्कारते ही ‘मेरे घर ज़रूर आओ’ की दावत कई लोग देने लगते हैं. कैसे तय होगा कि दुत्कारना सही है या दावतें देना? ऐसे सवालों की चर्चा हमें और धर्मान्ध नहीं तो फिर क्या बनाएगी?

संवेदनशील मुद्दों पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ख़ासी देरी से अपनी बात क्यों रखते हैं? दादरी कांड के बाद उन्होंने साफ़ किया कि आरक्षण नीति में यथास्थिति ही बनी रहेगी. उनकी सरकार इसमें कोई बदलाव नहीं लाना चाहती. विरोधियों की बातें भ्रामक हैं. यही बात बिहार में चुनाव प्रचार के शुरुआती दौर में बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह भी कह चुके हैं. लेकिन ये मुद्दा अभी ख़त्म नहीं होगा. क्योंकि आरक्षण के आधार की समीक्षा करने के बात संघ प्रमुख मोहन भागवत ने बीते महीने भर में दो बार कही है. दूसरी बार तो उन्होंने यहाँ तक कह दिया, ‘कोई कुछ भी कहे, लेकिन आरक्षण की समीक्षा तो होनी ही चाहिए.’ ये बात किसी चंगू-मंगू शख़्स की नहीं बल्कि संघ प्रमुख की है.

लिहाज़ा, जब तक नरेन्द्र मोदी और अमित शाह ये साफ़-साफ़ नहीं कहते कि वो आरक्षण पर दिये गये संघ प्रमुख के बयान से सहमत नहीं हैं, तब तक दोनों ही विरोधाभासी बयान पतंगों की तरह हवा में तैरते रहेंगे. लोग मनचाही पतंग को पकड़कर पेंच लड़ाने लगेंगे. ये सबक़ भी हमें इतिहास ने क्या कुछ कम सिखाया है?


वरिष्ठ पत्रकार
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